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कल सीं बे-कल है मिरा जी यार कूँ देखा न था | शाही शायरी
kal sin be-kal hai mera ji yar kun dekha na tha

ग़ज़ल

कल सीं बे-कल है मिरा जी यार कूँ देखा न था

सिराज औरंगाबादी

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कल सीं बे-कल है मिरा जी यार कूँ देखा न था
क्यूँ न होवे बेताब दिल दिलदार कूँ देखा न था

है बजा गर होवे ग़ज़ल-ख़्वाँ मिस्ल-ए-बुलबुल दिल मिरा
नौ-बहार-ए-गुलशन-ए-दीदार कूँ देखा न था

क्यूँकि होवे ज़ाहिद-ए-ख़ुद-बीं मुरीद-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार
उस ने सारी उम्र में ज़ुन्नार कूँ देखा न था

अब मुशब्बक हो गया उस तीर-ए-मिज़्गाँ के तुफ़ैल
जिस दिल-ए-नाज़ुक ने नोक-ए-ख़ार कूँ देखा न था

अबरू-ए-पुर-चीं कूँ तेरे देख दिल हैराँ हुआ
क्या मगर शमशीर-ए-जौहर-दार कूँ देखा न था

सीना-ए-गुलदार मेरा उस कूँ आया है पसंद
यार ने शायद कभी गुलज़ार कूँ देखा न था

देख अश्क-ए-गर्म कूँ मेरे कहा उस ने 'सिराज'
मैं कभी इस अब्र-ए-आतिश-बार कूँ देखा न था