कैसी है अजब रात ये कैसा है अजब शोर
सहरा ही नहीं घर भी मचाता है अजब शोर
इक दर्द की आँधी मुझे रखती है हिरासाँ
इक आस का झोंका भी उड़ाता है अजब शोर
रौशन है किसी आँख में तारीकी-ए-अहवाल
इक ताक़-ए-तमन्ना में दहकता है अजब शोर
इक शख़्स मिरे आइना-ए-दल के मुक़ाबिल
ख़ामोश है लेकिन पस-ए-चेहरा है अजब शोर
आती है बहुत दूर से पाज़ेब की आवाज़
फिर मेरी समाअत में चहकता है अजब शोर
मैं ज़ब्त को हर रुख़ से सिपर करता हूँ लेकिन
आँखों से मिरी झाँकता रहता है अजब शोर
शायद तिरा हिस्सा है किनारे की ख़मोशी
मालूम तुझे क्या तह-ए-दरिया है अजब शोर
ग़ज़ल
कैसी है अजब रात ये कैसा है अजब शोर
ख़्वाज़ा रज़ी हैदर