कैसे रखेंगे सर पे किसी का उधार हम
क़र्ज़-ए-वफ़ा में करते हैं सर का शुमार हम
अफ़्सोस इसी चमन में हुए बे-विक़ार हम
जिस को कि चाहते रहे दीवाना-वार हम
अल्फ़ाज़ मदह-ख़्वाँ थे क़लम थे बिके हुए
कैसे तराश लेते कोई शाह-कार हम
मिलना हमारा ख़ाक में ज़ाएअ' न जाएगा
दे जाएँगे चमन को शुऊ'र-ए-बहार हम
कोई सिपर बचा न सकेगी हुज़ूर को
तलवार से सुख़न की करेंगे जो वार हम
ऐ ज़िंदगी न हम से छुपा राज़-ए-ज़िंदगी
हर साँस में हैं तेरे ही आईना-दार हम
डालें अब एक और रिवायत की दाग़-बेल
दुश्मन पे ऐ 'नियाज़' करें ए'तिबार हम
ग़ज़ल
कैसे रखेंगे सर पे किसी का उधार हम
अब्दुल मतीन नियाज़