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कैसे कटे क़सीदा-गो हर्फ़-गरों के दरमियाँ | शाही शायरी
kaise kaTe qasida-go harf-garon ke darmiyan

ग़ज़ल

कैसे कटे क़सीदा-गो हर्फ़-गरों के दरमियाँ

रज़ी अख़्तर शौक़

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कैसे कटे क़सीदा-गो हर्फ़-गरों के दरमियाँ
कोई तो सर-कशीदा हो इतने सरों के दरमियाँ

एक तो शाम रंग रंग फिर मिरे ख़्वाब रंग रंग
आग सी है लगी हुई मेरे परों के दरमियाँ

हाथ लिए हैं हाथ में फिर भी नज़र है घात में
हम-सफ़रों की ख़ैर हो हम-सफ़रों के दरमियाँ

अब जो चले तो ये खुला शहर कुशादा हो गया
बढ़ गए और फ़ासले घर से घरों के दरमियाँ

कैसे उड़ूँ मैं क्या उड़ूँ जब कोई कश्मकश सी हो
मेरे ही बाज़ुओं में और मेरे परों के दरमियाँ

जाम-ए-सिफ़ाल-ओ-जाम-ए-जम कुछ भी तो हम न बन सके
और बिखर बिखर गए कूज़ा-गरों के दरमियाँ

जैसे लुटा था 'शौक़' में यूँही मता-ए-फ़न लुटी
अहल-ए-नज़र के सामने दीदा-वरों के दरमियाँ