कैसे कहीं कि जान से प्यारा नहीं रहा
ये और बात अब वो हमारा नहीं रहा
आँसू तिरे भी ख़ुश्क हुए और मेरे भी
नम अब किसी नदी का किनारा नहीं रहा
कुछ दिन तुम्हारे लौट के आने की आस थी
अब इस उम्मीद का भी सहारा नहीं रहा
रस्ते मह-ओ-नुजूम के तब्दील हो गए
इन खिड़कियों में एक भी तारा नहीं रहा
समझे थे दूसरों से बहुत मुख़्तलिफ़ तुझे
क्या मान लें कि तू भी हमारा नहीं रहा
हाथों पे बुझ गई है मुक़द्दर की कहकशाँ
या राख हो गया वो सितारा नहीं रहा
तुम ए'तिबार उस के लिए क्यूँ उदास हो
इक शख़्स जो कभी भी तुम्हारा नहीं रहा
ग़ज़ल
कैसे कहीं कि जान से प्यारा नहीं रहा
ऐतबार साजिद