कैसे आ पहुँची है गुलशन की हवा ज़िंदाँ में
दिल का जौ ज़ख़्म था इक फूल बना ज़िंदाँ में
ऐसा दिल-कश था कि थी मौत भी मंज़ूर हमें
हम ने जिस जुर्म की काटी है सज़ा ज़िंदाँ में
मैं गुलिस्ताँ में भी तन्हा था मगर याद तो थी
कैसा बे-यार-ओ-मदद-गार हुआ ज़िंदाँ मैं
मैं नय तंहाई से तंग आ के उसे याद किया
अब मिरे साथ ही रहता है ख़ुदा ज़िंदाँ में
वो जो गुलशन में मिरे ग़म का मुदावा न हुआ
चाँद निकला तो उसे याद किया ज़िंदाँ में
आज जब आँख खुली है तो फ़ज़ा है ख़ामोश
सुब्ह-दम कौन सू-ए-दार गया ज़िंदाँ में
ग़ज़ल
कैसे आ पहुँची है गुलशन की हवा ज़िंदाँ में
मंज़ूर आरिफ़