कई दिन से हम भी हैं देखे उसे हम पे नाज़ ओ इताब है
कभी मुँह बना कभी रुख़ फिरा कभी चीं-जबीं पे शिताब है
है फँसा जो ज़ुल्फ़ में उस के दिल तो बता दें क्या तुझे हम-नशीं
कभी बल से बल कभी ख़म से ख़म कभी ताब-चीन से ताब है
वो ख़फ़ा जो हम से है ग़ुंचा-लब तो हमारी शक्ल ये है कि अब
कभी रंज-ए-दिल कभी आह-ए-जाँ कभी चश्म-ए-ग़म से पुर-आब है
नहीं आता वो जो इधर ज़रा हमीं इंतिज़ार में उस के याँ
कभी झाँकना कभी ताकना कभी बे-कली पए-ख़्वाब है
वो 'नज़ीर' हम से जो आ मिला तो फिर उस घड़ी से ये ऐश हैं
कभी रुख़ पे रुख़ कभी लब पे लब कभी साग़र-ए-मय-ए-नाब है
ग़ज़ल
कई दिन से हम भी हैं देखे उसे हम पे नाज़ ओ इताब है
नज़ीर अकबराबादी