कई भयानक काली रातों के अँधियारे में
तन्हाई में जलती बत्ती घर में हुई असीर
कोई अपना बन दरवाज़े दस्तक दे इक बार
ख़ामोशी की पीठ पे खींचे सीधी एक लकीर
सीने में टूटी हर ख़्वाहिश की नाज़ुक नन्ही नोक
कजलाई आँखों के आगे ख़्वाबों की ताबीर
तन का जोगी मन का साइल माँगे मीठी नींद
रोटी कपड़ा पैसा रख के रोए रात फ़क़ीर
ग़ज़ल
कई भयानक काली रातों के अँधियारे में
वहाब दानिश