EN اردو
कहती है नमाज़-ए-सुब्ह की बाँग | शाही शायरी
kahti hai namaz-e-subh ki bang

ग़ज़ल

कहती है नमाज़-ए-सुब्ह की बाँग

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

;

कहती है नमाज़-ए-सुब्ह की बाँग
उठ सुब्ह हुई है कुछ दुआ माँग

देखा मैं चहार दाँग-ए-आलम
पर हाथ लगा न कुछ भी इक दाँग

सीमीं बदन उस का चाँदनी में
डरता हूँ पिघल न जावे जूँ राँग

टूटा जो हमारा शीशा-ए-दिल
पहुँचेगी फ़लक तक उस की गुल-बाँग

बहरूप है ये जहाँ कि जिस में
हर रोज़ नया बने है इक साँग

करता हूँ सवाल जिस के दर पर
आती है यही सदा कि फिर माँग

दिल्ली में पड़ें न क्यूँ के डाके
चोरों की हर एक घर में है थांग

ऐ शोख़ ये ख़ून-ए-'मुसहफ़ी' है
चल बच के न आते जाते यूँ लाँग