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कहते हैं याँ कि ''मुझ सा कोई मह-जबीं नहीं'' | शाही शायरी
kahte hain yan ki mujh sa koi mah-jabin nahin

ग़ज़ल

कहते हैं याँ कि ''मुझ सा कोई मह-जबीं नहीं''

नज़ीर अकबराबादी

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कहते हैं याँ कि ''मुझ सा कोई मह-जबीं नहीं''
प्यारे जो हम से पूछो तो याँ क्या कहीं नहीं

तुझ सा तो कोई हुस्न में याँ नाज़नीं नहीं
यूँ नाज़नीं बहुत हैं ये नाज़-आफ़रीं नहीं

साक़ी को जाम देने में उस ख़ुश-निगह को आह
हर दम इशारतें हैं कि उस के तईं नहीं

जब उस नहीं के कहने से माने है वो बुरा
आफी फिर उस को कहता हूँ हँस कर नहीं नहीं

इतना तो छेड़ता हूँ कि कहता है जब वो शोख़
बंदा तू मेरा मोल ख़रीदा नहीं नहीं

साक़ी तुझे क़सम है दिए जा मुझे तू जाम
याँ दम में दम है होती नहीं जब नहीं नहीं

पूछे है उस से जब कोई क़त्ल-ए-'नज़ीर' को
कहता है हम ने मारा है हाँ हाँ नहीं नहीं