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कहते हैं लोग ये कि बड़ी दिल-नशीं है शाम | शाही शायरी
kahte hain log ye ki baDi dil-nashin hai sham

ग़ज़ल

कहते हैं लोग ये कि बड़ी दिल-नशीं है शाम

करामत अली करामत

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कहते हैं लोग ये कि बड़ी दिल-नशीं है शाम
लेकिन मुझे ये लगता है अंदोह-गीं है शाम

ये इक छलावा है कि पहाड़ों की आग है
वहम-ओ-गुमाँ की शक्ल में जैसे यक़ीं है शाम

क्या उस को ढूँडते हो ख़लाओं के दरमियाँ
तुम अपने दिल में खोज के देखो यहीं है शाम

ये कैसी मछलियाँ हैं चमकती हैं रात भर
ये झील है कि एक निगाह-ए-हसीं है शाम

दोनों का वस्ल हो तो शफ़क़-रंग हो ये दिल
है रात आसमान तो गोया ज़मीं है शाम

दिन का गुनाह रात के सर आ गया है क्यूँ?
क्या शब की बे-गुनाही की शाहिद नहीं है शाम?

ये तो बदल चुकी है 'करामत' हवा का रुख़
कैसे कहूँ कि वक़्त के ज़ेर-ए-नगीं है शाम