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कहते हैं जिस को 'नज़ीर' सुनिए टुक उस का बयाँ | शाही शायरी
kahte hain jis ko nazir suniye Tuk us ka bayan

ग़ज़ल

कहते हैं जिस को 'नज़ीर' सुनिए टुक उस का बयाँ

नज़ीर अकबराबादी

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कहते हैं जिस को 'नज़ीर' सुनिए टुक उस का बयाँ
था वो मोअल्लिम ग़रीब बुज़दिल ओ तरसंदा-जाँ

कोई किताब इस के तईं साफ़ न थी दर्स की
आए तो मअनी कहे वर्ना पढ़ाई रवाँ

फ़हम न था इल्म से कुछ अरबी के उसे
फ़ारसी में हाँ मगर समझे था कुछ ईन ओ आँ

लिखने की ये तर्ज़ थी कुछ जो लिखे था कभी
पुख़्तगी ओ ख़ामी के उस का था ख़त दरमियाँ

शेर ओ ग़ज़ल के सिवा शौक़ न था कुछ उसे
अपने इसी शग़्ल में रहता था ख़ुश हर ज़माँ

सुस्त रविश पस्त क़द साँवला हिन्दी-नज़ाद
तन भी कुछ ऐसा ही था क़द के मुआफ़िक़ अयाँ

माथे पे इक ख़ाल था छोटा सा मस्से के तौर
था वो पड़ा आन कर अबरुओं के दरमियाँ

वज़्अ सुबुक उस की थी तिस पे न रखता था रीश
मूछैं थीं और कानों पर पट्टे भी थे पुम्बा-साँ

पीरी में जैसी कि थी उस को दिल-अफ़्सुर्दगी
वैसी ही रही थी उन दिनों जिन दिनों मैं था जवाँ

जितने ग़रज़ काम हैं और पढ़ाने सिवा
चाहिए कुछ उस से हों उतनी लियाक़त कहाँ

फ़ज़्ल ने अल्लाह के उस को दिया उम्र भर
इज़्ज़त-ओ-हुर्मत के साथ पारचा ओ आब-ओ-नाँ