कहो तो नाम मैं दे दूँ इसे मोहब्बत का
जो इक अलाव है जलती हुई रिफ़ाक़त का
जिसे भी देखो चला जा रहा है तेज़ी से
अगरचे काम यहाँ कुछ नहीं है उजलत का
दिखाई देता है जो कुछ कहीं वो ख़्वाब न हो
जो सुन रही हूँ वो धोका न हो समाअत का
यक़ीन करने लगे लोग रुत बदलती है
मगर ये सच भी करिश्मा न हो ख़िताबत का
सँवारती रही घर को मगर ये भूल गई
कि मुख़्तसर है ये अर्सा यहाँ सुकूनत का
चलो कि इस में भी इक-आध काम कर डालें
जो मिल गया है ये लम्हा ज़रा सी मोहलत का
ग़ज़ल
कहो तो नाम मैं दे दूँ इसे मोहब्बत का
फ़ातिमा हसन