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कहो कि तूर पे जलता रहे चराग़ अभी | शाही शायरी
kaho ki tur pe jalta rahe charagh abhi

ग़ज़ल

कहो कि तूर पे जलता रहे चराग़ अभी

सय्यद मज़हर गिलानी

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कहो कि तूर पे जलता रहे चराग़ अभी
मुझे शराब से हासिल नहीं फ़राग़ अभी

अभी तो बादा-परस्ती मिरी शबाब पे है
रविश रविश है मिरे दम से बाग़ बाग़ अभी

जो सुब्ह-ए-वस्ल तिरे गेसुओं से टपकी थी
महक रहा है उसी बाग़ से दिमाग़ अभी

क़याम-ए-हश्र ज़रा और मुल्तवी कर दो
कि मय-कदे में खनकते हैं कुछ अयाग़ अभी

अभी जहन्नम-ए-दुनिया में और जलने दो
मिरी जबीन-ए-बग़ावत है दाग़ दाग़ अभी

नहीं है फ़ुर्सत-ए-तौबा शराब से 'मज़हर'
कि फ़ैज़-ए-यार से लबरेज़ है अयाग़ अभी