कहने सुनने का अजब दोनों तरफ़ जोश रहा
शहर की बातों पे सहरा हमा-तन-गोश रहा
आँखों आँखों में वज़ाहत से हुआ कीं बातें
चुप न महफ़िल में वो बैठा न मैं ख़ामोश रहा
रख दिया वक़्त ने आईना बना कर मुझ को
रू-ब-रू होते हुए भी मैं फ़रामोश रहा
मुद्दतों ब'अद नक़ाब उस ने उठाई रुख़ से
सर-ब-सर शोला वो निकला जो सियह-पोश रहा
ठहरा इज़हार की हसरत को छुपाना मुश्किल
बन गया बोलती तस्वीर जो ख़ामोश रहा
धूप की थी जहाँ फ़सलों को ज़रूरत 'राही'
बादलों में वहीं सूरज कहीं रू-पोश रहा
ग़ज़ल
कहने सुनने का अजब दोनों तरफ़ जोश रहा
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही