EN اردو
कहने को यूँ तो अब्र-ए-करम क़तरा-ज़न हुआ | शाही शायरी
kahne ko yun to abr-e-karam qatra-zan hua

ग़ज़ल

कहने को यूँ तो अब्र-ए-करम क़तरा-ज़न हुआ

जाफ़र ताहिर

;

कहने को यूँ तो अब्र-ए-करम क़तरा-ज़न हुआ
वो गुल खिले नदीम कि ख़ून-ए-चमन हुआ

ये दाग़-ए-दिल कि जिन से रिवाज-ए-सहर चला
नोक-ए-मिज़ा पे अश्क जो उभरा किरन हुआ

पत्थर की मूरतें नज़र आती हैं चार-सू
यारब तिरे जहाँ को ये क्या दफ़अ'तन हुआ

दोनों में गूँजती हैं बहारों की धड़कनें
मेरी ग़ज़ल हुई कि तुम्हारा बदन हुआ

दोनों से हो रहा है नई सुब्ह का ज़ुहूर
तेरी क़बा हुई कि हमारा कफ़न हुआ

'ताहिर' सियाह-फ़ाम हुए हम तो ग़म नहीं
रौशन हमारे नाम से नाम-ए-सुख़न हुआ