EN اردو
कहीं तुम अपनी क़िस्मत का लिखा तब्दील कर लेते | शाही शायरी
kahin tum apni qismat ka likha tabdil kar lete

ग़ज़ल

कहीं तुम अपनी क़िस्मत का लिखा तब्दील कर लेते

सलीम कौसर

;

कहीं तुम अपनी क़िस्मत का लिखा तब्दील कर लेते
तो शायद हम भी अपना रास्ता तब्दील कर लेते

अगर हम वाक़ई कम-हौसला होते मोहब्बत में
मरज़ बढ़ने से पहले ही दवा तब्दील कर लेते

तुम्हारे साथ चलने पर जो दिल राज़ी नहीं होता
बहुत पहले हम अपना फ़ैसला तब्दील कर लेते

तुम्हें इन मौसमों की क्या ख़बर मिलती अगर हम भी
घुटन के ख़ौफ़ से आब ओ हवा तब्दील कर लेते

तुम्हारी तरह जीने का हुनर आता तो फिर शायद
मकान अपना वही रखते पता तब्दील कर लेते

वही किरदार हैं ताज़ा कहानी में जो पहले भी
कभी चेहरा कभी अपनी क़बा तब्दील कर लेते

जुदाई भी न होती ज़िंदगी भी सहल हो जाती
जो हम इक दूसरे से मसअला तब्दील कर लेते

हमेशा की तरह इस बार भी हम बोल उठे वर्ना
गवाही देने वाले वाक़िआ तब्दील कर लेते

बहुत धुँदला गया यादों की रिम-झिम में दिल-ए-सादा
वो मिल जाता तो हम ये आईना तब्दील कर लेते