कहीं शुऊर में सदियों का ख़ौफ़ ज़िंदा था
मैं शाख़-ए-अस्र पे बैठा हुआ परिंदा था
बदन में दिल था मुअल्लक़ ख़ला में नज़रें थीं
मगर कहीं कहीं सीने में दर्द ज़िंदा था
फिर एक रात मुझी पर झपट पड़ा मिरा ज़ब्त
जिसे मैं पाल रहा था कोई दरिंदा था
ख़ुशी ने हाथ बढ़ाया था मेरी जानिब भी
मगर वहाँ जहाँ हर शख़्स ग़म-कुनिंदा था
नबर्द-ए-इश्क़ में क्या क्या जिगर किया 'तौक़ीर'
हवा का लम्स भी जब इंतिक़ाम-ए-हिंदा था

ग़ज़ल
कहीं शुऊर में सदियों का ख़ौफ़ ज़िंदा था
तौक़ीर तक़ी