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कहीं साक़ी का फ़ैज़-ए-आम भी है | शाही शायरी
kahin saqi ka faiz-e-am bhi hai

ग़ज़ल

कहीं साक़ी का फ़ैज़-ए-आम भी है

वामिक़ जौनपुरी

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कहीं साक़ी का फ़ैज़-ए-आम भी है
किसी शीशे पे मेरा नाम भी है

वो चश्म-ए-मस्त मय भी जाम भी है
फिरे तो गर्दिश-ए-अय्याम भी है

नवा-ए-चंग ओ बरबत सुनने वालो
पस-ए-पर्दा बड़ा कोहराम भी है

मिरी फ़र्द-ए-जुनूँ पे ऐ बहारो
गवाहों में ख़िज़ाँ का नाम भी है

न पूछो बेबसी उस तिश्ना-लब की
कि जिस की दस्तरस में जाम भी है

मोहब्बत की सज़ा तर्क-ए-मोहब्बत
मोहब्बत का यही इनआम भी है

निगाह-ए-शौक़ है गुस्ताख़ लेकिन
निगाह-ए-शौक़ कुछ बदनाम भी है

निगाहों का तसादुम किस ने देखा
मगर ये राज़ तश्त अज़ बाम भी है