कहीं लोग तन्हा कहीं घर अकेले
कहाँ तक मैं देखूँ ये मंज़र अकेले
गली में हवाओं की सरगोशियाँ हैं
घरों में मगर सब सनोबर अकेले
नुमाइश हज़ारों निगाहों ने देखी
मगर फूल पहले से बढ़ कर अकेले
अब इक तीर भी हो लिया साथ वर्ना
परिंदा चला था सफ़र पर अकेले
जो देखो तो इक लहर में जा रहे हैं
जो सोचो तो सारे शनावर अकेले
तिरी याद की बर्फ़-बारी का मौसम
सुलगता रहा दिल के अंदर अकेले
इरादा था जी लूँगा तुझ से बिछड़ कर
गुज़रता नहीं इक दिसम्बर अकेले
ज़माने से 'क़ासिर' ख़फ़ा तो नहीं हैं
कि देखे गए हैं वो अक्सर अकेले
ग़ज़ल
कहीं लोग तन्हा कहीं घर अकेले
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर