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कहाँ ज़मीं के ज़ईफ़ ज़ीने पे चल रही है | शाही शायरी
kahan zamin ke zaif zine pe chal rahi hai

ग़ज़ल

कहाँ ज़मीं के ज़ईफ़ ज़ीने पे चल रही है

सज्जाद बलूच

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कहाँ ज़मीं के ज़ईफ़ ज़ीने पे चल रही है
ये रात सदियों से मेरे सीने पे चल रही है

रवाँ है मौज-ए-जुनूँ पे एहसास का सफ़ीना
और एक तहज़ीब इस सफ़ीने पे चल रही है

ख़ुमार-ए-ख़्वाब-ए-सहर ये दिल और तेरी यादें
हवा दबे पाँव आबगीने पे चल रही है

मैं मर गया तो ख़बर नहीं उन का क्या बनेगा
दुकान-ए-याराँ तो सिर्फ़ कीने पे चल रही है

गुज़र चुका है तिरी जुदाई का सानेहा भी
हमारी धड़कन नए क़रीने पे चल रही है