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कहाँ सबात-ए-ग़म-ए-दिल कहाँ सराब-ए-सुकूँ | शाही शायरी
kahan sabaat-e-gham-e-dil kahan sarab-e-sukun

ग़ज़ल

कहाँ सबात-ए-ग़म-ए-दिल कहाँ सराब-ए-सुकूँ

एजाज़ वारसी

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कहाँ सबात-ए-ग़म-ए-दिल कहाँ सराब-ए-सुकूँ
वो ख़ुश-नसीब है मिल जाए जिस को सोज़-ए-दरूँ

ख़ुद आप देख लें क्या हाल दिल ज़बाँ से कहूँ
अभी तो हैं मिरी आँखों में चंद क़तरा-ए-ख़ूँ

ये शहर-ए-हम-नफ़साँ कितनी बार उजड़ा है
कभी न हो सका लेकिन सर-ए-हयात निगूँ

अभी तो मस्लहत-ए-वक़्त ही पे नाज़ाँ है
अभी ख़िरद को मयस्सर कहाँ मक़ाम-ए-जुनूँ

निगाह नीची किए मुन्फ़इल से बैठे हैं
अब उन से शिकवा-ए-बेदाद किस ज़बाँ से करूँ

निखार आ ही गया ख़ुश्क ख़ुश्क चेहरों पर
मिला तो गिर्या-ए-शबनम से कुछ गुलों को सुकूँ

दर-अस्ल है मिरी हस्ती की काएनात 'एजाज़'
वो इक निगाह जिसे ज़िंदगी का राज़ कहूँ