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कहाँ रुकेंगे मुसाफ़िर नए ज़मानों के | शाही शायरी
kahan rukenge musafir nae zamanon ke

ग़ज़ल

कहाँ रुकेंगे मुसाफ़िर नए ज़मानों के

शकेब जलाली

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कहाँ रुकेंगे मुसाफ़िर नए ज़मानों के
बदल रहा है जुनूँ ज़ाविए उड़ानों के

ये दिल का ज़ख़्म है इक रोज़ भर ही जाएगा
शिगाफ़ पुर नहीं होते फ़क़त चटानों के

छलक छलक के बढ़ा मेरी सम्त नींद का जाम
पिघल पिघल के गिरे क़ुफ़्ल क़ैद-ख़ानों के

हवा के दश्त में तन्हाई का गुज़र ही नहीं
मिरे रफ़ीक़ हैं मुतरिब गए ज़मानों के

कभी हमारे नुक़ूश-ए-क़दम को तरसेंगे
वही जो आज सितारे हैं आसमानों के