कहाँ कहाँ तिरी रंगीनी-ए-शबाब नहीं
मिरा मज़ाक़-ए-नज़र फिर भी कामयाब नहीं
किसी नज़र में तुम्हें देखने की ताब नहीं
नक़ाब-ए-रुख़ भी उलट दो तो बे-नक़ाब नहीं
वो सुन के अर्ज़-ए-तमन्ना को हो गए ख़ामोश
मिरे सवाल का शायद कोई जवाब नहीं
कुछ और मस्त निगाहों से देख ऐ साक़ी
ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ अभी नश्शा-ए-शराब नहीं
बड़े-बड़ों के क़दम डगमगा गए हैं यहाँ
ये इम्तिहान का इक दौर है शबाब नहीं
ख़मोश बैठे हैं जो पी चुके हैं ख़ुम के ख़ुम
बहक रहे हैं जो आलूदा-ए-शराब नहीं
तुम्हारी हसरत-ए-दीदार बरक़रार रहे
हज़ार साल भी गुज़रीं तो कुछ हिसाब नहीं
लगी हुई हैं तुम्हारी तरफ़ मिरी आँखें
मिरी नज़र में ज़माने का इंक़लाब नहीं
खुली हुई तिरे आने के इंतिज़ार में हैं
ख़ुशा-नसीब वो आँखें जो महव-ए-ख़्वाब नहीं
मैं अपने दोस्त से क्या मुजतनिब हूँ ऐ 'शंकर'
मुझे तो अपने अदू से भी इज्तिनाब नहीं

ग़ज़ल
कहाँ कहाँ तिरी रंगीनी-ए-शबाब नहीं
शंकर लाल शंकर