EN اردو
कफ़-ए-मोमिन से न दरवाज़ा-ए-दौराँ से मिला | शाही शायरी
kaf-e-momin se na darwaza-e-dauran se mila

ग़ज़ल

कफ़-ए-मोमिन से न दरवाज़ा-ए-दौराँ से मिला

मुस्तफ़ा ज़ैदी

;

कफ़-ए-मोमिन से न दरवाज़ा-ए-दौराँ से मिला
रिश्ता-ए-दर्द उसी दुश्मन-ए-ईमाँ से मिला

इस का रोना है कि पैमाँ-शिकनी के बा-वस्फ़
वो सितमगर उसी पेशानी-ए-ख़ंदाँ से मिला

तालिब-ए-दस्त-ए-हवस और कई दामन थे
हम से मिलता जो न यूसुफ़ के गरेबाँ से मिला

कोई बाक़ी नहीं अब तर्क-ए-तअल्लुक़ के लिए
वो भी जा कर सफ़-ए-अहबाब-ए-गुरेज़ाँ से मिला

क्या कहें इस को जो महफ़िल में शनासा भी न था
कभी ख़ल्वत में दर आया तो दिल-ओ-जाँ से मिला

मैं उसी कोह-सिफ़त ख़ून की इक बूँद हूँ जो
रेग-ज़ार-ए-नजफ़ ओ ख़ाक-ए-ख़ुरासाँ से मिला