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कभू न उस रुख़-ए-रौशन पे छाइयाँ देखीं | शाही शायरी
kabhu na us ruKH-e-raushan pe chhaiyan dekhin

ग़ज़ल

कभू न उस रुख़-ए-रौशन पे छाइयाँ देखीं

शाह नसीर

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कभू न उस रुख़-ए-रौशन पे छाइयाँ देखीं
घटाएँ चाँद पे सौ बार छाइयाँ देखीं

फ़तादगी में जो इज़्ज़त है सर-कशी में कहाँ
कि नक़्श-ए-पा की यहाँ रह-नुमाइयाँ देखीं

बलाएँ लेवे है हाथों से उस की ज़ुल्फ़ों की
ये दस्त-ए-शाना की हम ने रसाइयाँ देखीं

चमन में नाख़ुन-ए-हर-बर्ग-ए-गुल से बुलबुल की
हज़ार रंग से उक़्दा-कुशाइयाँ देखीं

ज़बान-ए-तेशा बहुत काम आई ऐ फ़रहाद
जो इश्क़ ने तिरी ज़ोर-आज़माइयाँ देखीं

नज़र में अपनी वो फिरती हैं सूरतें हैहात
फ़लक ने ख़ाक में क्या क्या मिलाइयाँ देखीं

किसू ने ली न ख़बर ग़र्क़-ए-बहर-ए-उल्फ़त की
इन आश्नाओं की ये आश्नाइयाँ देखीं

हमारी उस की कुदूरत की वज्ह कुछ न रही
कि आइने ने दिलों की सफ़ाइयाँ देखीं

हम अपना तुझ को हवा-ख़्वाह जानते थे सबा
बहारें तू ने भी तन्हा उड़ाइयाँ देखीं

बयान किस से करूँ अपनी तीरा-बख़्ती का
अँधेरी रातें वो ऐ दिल फिर आइयाँ देखीं

'नसीर' कीजे वफ़ा कब तलक ब-क़ौल-ए-'मीर'
जफ़ाएँ देख लियाँ बेवफ़ाइयाँ देखीं