EN اردو
कभी तो सोचना तुम उन उदास आँखों का | शाही शायरी
kabhi to sochna tum un udas aankhon ka

ग़ज़ल

कभी तो सोचना तुम उन उदास आँखों का

जानाँ मलिक

;

कभी तो सोचना तुम उन उदास आँखों का
ये रतजगों में घिरी महव-ए-यास आँखों का

मैं घर गई थी कहीं वहशतों के जंगल में
था इक हुजूम मिरे आस पास आँखों का

बरहनगी तिरे अंदर कहीं पनपती है
लिबास ढूँड कोई बे-लिबास आँखों का

तुम्हारे हिज्र का मौसम ही रास आया मुझे
यही था एक तबीअत-शनास आँखों का

उसी की नज़्र सभी रतजगे सभी नींदें
और उस की आँखों के नाम इक़्तिबास आँखों का

पड़ी रहे तिरी तस्वीर सामने यूँही
ये ज़र खिला रहे आँखों के पास आँखों का

ख़याल था कि वो अब्र इस तरफ़ से गुज़रेगा
सो ये भी 'जानाँ' था वहम-ओ-क़यास आँखों का