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कभी तो चश्म-ए-फ़लक में हया दिखाई दे | शाही शायरी
kabhi to chashm-e-falak mein haya dikhai de

ग़ज़ल

कभी तो चश्म-ए-फ़लक में हया दिखाई दे

इनआम आज़मी

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कभी तो चश्म-ए-फ़लक में हया दिखाई दे
कि धूप सर से हटे और घटा दिखाई दे

मैं इक़्तिबास-ए-अज़िय्यत हूँ लौह-ए-दुनिया पर
सो मुझ में ग़म के सिवा और क्या दिखाई

मैं चाहता हूँ कि मेरे लिए मिरे मौला
लब-ए-अदू पे भी हर्फ़-ए-दुआ दिखाई दे

चराग़ बन के सदा इस लिए जले हम लोग
हमारी ज़िद थी कि हम को हवा दिखाई दे

कभी तो सेहन-ए-गुलिस्ताँ से हो ख़िज़ाँ रुख़्सत
कभी तो पेड़ पे पत्ता हरा दिखाई दे

हिसार-ए-ज़ात से मैं इस लिए निकलता नहीं
कि चश्म-ए-तर को मिरी कौन क्या दिखाई दे

ज़माने बा'द लगा ख़ुद को देख कर ऐसा
कि जैसे ख़्वाब में इक गुम-शुदा दिखाई दे