कभी तो आ मिरी आँखों की रौशनी बन कर
ज़मीन-ए-खुश्क को सैराब कर नमी बन कर
रचा हुआ है तिरी कम-निगाहियों का करम
नशे की तरह मिरे दिल में सरख़ुशी बन कर
कभी तो आ तपिश-ए-जान-गुसल ही देने को
कभी गुज़र इन्ही राहों से अजनबी बन कर
ख़ुशा कि और मिला ग़म का ताज़ियाना हमें
ख़ुशा वो दर्द जो छाया है नग़्मगी बन कर
तुम्हें अज़ीज़ नहीं है तो हो अज़ीज़ किसे
न मिल सकेगा कोई वज्ह-ए-ज़िन्दगी बन कर
पलट के देख न उस को वो ख़ाक कर देगा
तिरे ग़ुरूर को ज़हराब की अनी बन कर
हुई न उस से वफ़ा तुम से क्या हुआ 'नाहीद'
अभी तलक जिए जाती हो बावली बन कर
ग़ज़ल
कभी तो आ मिरी आँखों की रौशनी बन कर
किश्वर नाहीद