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कभी तक़्सीर जिस ने की ही नहीं | शाही शायरी
kabhi taqsir jis ne ki hi nahin

ग़ज़ल

कभी तक़्सीर जिस ने की ही नहीं

इस्माइल मेरठी

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कभी तक़्सीर जिस ने की ही नहीं
हम से पूछो तो आदमी ही नहीं

मर चुके जीते-जी ख़ुशा क़िस्मत
इस से अच्छी तो ज़िंदगी ही नहीं

दोस्ती और किसी ग़रज़ के लिए
वो तिजारत है दोस्ती ही नहीं

या वफ़ा ही न थी ज़माने में
या मगर दोस्तों ने की ही नहीं

कुछ मिरी बात कीमिया तो न थी
ऐसी बिगड़ी कि फिर बनी ही नहीं

जिस ख़ुशी को न हो क़याम-ओ-दवाम
ग़म से बद-तर है वो ख़ुशी ही नहीं

बंदगी का शुऊ'र है जब तक
बंदा-परवर वो बंदगी ही नहीं

एक दो घूँट जाम-ए-वहदत के
जो न पी ले वो मुत्तक़ी ही नहीं

की है ज़ाहिद ने आप दुनिया तर्क
या मुक़द्दर में उस के थी ही नहीं