कभी सहरा में रहते हैं कभी पानी में रहते हैं
न जाने कौन है जिस की निगहबानी में रहते हैं
ज़मीं से आसमाँ तक अपने होने का तमाशा है
ये सारे सिलसिले इक लम्हा-ए-फ़ानी में रहते हैं
सवेरा होते होते रोज़ आ जाते हैं साहिल पर
सफ़ीने रात भर दरिया की तुग़्यानी में रहते हैं
पता आँखें को मिलता है यहीं सब जाने वालों का
सभी इस आईना-ख़ाने की हैरानी में रहते हैं
इधर हम हैं कि हर कार-ए-जहाँ दुश्वार है हम को
उधर कुछ लोग हर मुश्किल की आसानी में रहते हैं
किसे ये नीली पीली तितलियाँ अच्छी नहीं लगतीं
अजब क्या है जो हम बच्चों की नादानी में रहते हैं
यही बे-चेहरा ओ बे-नाम घर अपना ठिकाना है
हम इक भूले हुए मंज़र की वीरानी में रहते हैं
ग़ज़ल
कभी सहरा में रहते हैं कभी पानी में रहते हैं
शमीम हनफ़ी