कभी सहर तो कभी शाम ले गया मुझ से
तुम्हारा दर्द कई काम ले गया मुझ से
मुझे ख़बर न हुई और ज़माना जाते हुए
नज़र बचा के तिरा नाम ले गया मुझ से
उसे ज़ियादा ज़रूरत थी घर बसाने की
वो आ के मेरे दर-ओ-बाम ले गया मुझ से
भला कहाँ कोई जुज़ इस के मिलने वाला था
बस एक जुरअत-ए-नाकाम ले गया मुझ से
बस एक लम्हे के सच झूट के एवज़ 'फ़रहत'
तमाम उम्र का इल्ज़ाम ले गया मुझ से
ग़ज़ल
कभी सहर तो कभी शाम ले गया मुझ से
फ़रहत अब्बास शाह