कभी रस्ते को रोते हैं कभी मुश्किल को रोते हैं
जो नाकाम सफ़र होते हैं वो मंज़िल को रोते हैं
ज़रा अंदाज़ तो देखे कोई इन दिल-फ़िगारों का
पलटते हैं वरक़ माज़ी का मुस्तक़बिल को रोते हैं
ख़ुदाया किस क़दर नादान हैं ये कश्तियाँ वाले
समुंदर पर नज़र रखते हैं और साहिल को रोते हैं
बदल दीं इंक़िलाब-ए-वक़्त ने क़द्रें ज़माने की
सजाते थे जो ख़ुद महफ़िल वो अब महफ़िल को रोते हैं
गुज़रती है इसी आलम में 'रहबर' ज़िंदगी अपनी
कभी दिल हम को रोता है कभी हम दिल को रोते हैं
ग़ज़ल
कभी रस्ते को रोते हैं कभी मुश्किल को रोते हैं
रहबर जौनपूरी