कभी मौसम साथ नहीं देते कभी बेल मुंडेर नहीं चढ़ती
लेकिन यहाँ वक़्त बदलने में ऐसी कोई देर नहीं लगती
कहीं अंदर बज़्म सजाए हुए कहीं बाहर ख़ुद को छुपाए हुए
तिरे ज़िक्र का काम नहीं रुकता तिरी याद की उम्र नहीं ढलती
इक ख़्वाब-नुमा तमसील का धुँदला अक्स है आईना-ख़ाने में
वो हुस्न दिखाई नहीं देता और फिर भी निगाह नहीं हटती
कई सदियाँ बीत गईं मुझ में तिरे क़ुर्ब की बे-लज़्ज़त रुत में
मिरा जिस्म नमाज़ का आदी है मिरी रूह नमाज़ नहीं पढ़ती
ग़ज़ल
कभी मौसम साथ नहीं देते कभी बेल मुंडेर नहीं चढ़ती
सलीम कौसर