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कभी लुत्फ़-ए-ज़बान-ए-ख़ुश-बयाँ थे | शाही शायरी
kabhi lutf-e-zaban-e-KHush-bayan the

ग़ज़ल

कभी लुत्फ़-ए-ज़बान-ए-ख़ुश-बयाँ थे

वाजिद अली शाह अख़्तर

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कभी लुत्फ़-ए-ज़बान-ए-ख़ुश-बयाँ थे
ज़मीन-ए-शेर के हम आसमाँ थे

लगा ठोकर न पाए नाज़ से तू
कभी ताज-ए-सर-ए-हिन्दोस्ताँ थे

ज़मीं पर चर्ख़ देता है अबस तू
कभी पीर-ए-फ़लक हम भी जवाँ थे

ज़र-ए-गुल बन गया नाला हमारा
चमन में भी हमीं आतिश-फ़िशाँ थे

मकीं थी रूह छोड़ा जिस्म जिस दम
किराए के ये सब क़स्र-ओ-मकाँ थे

वही जंगल है अब पर उस से आगे
चमन थे गुल थे हम थे बाग़बाँ थे

नहीं अब ज़ब्त बाक़ी ना-तवाँ हूँ
मिरे आँसू निहायत राज़-दाँ थे

मिरे नालों से पहुँचा क़ाफ़िला सब
जरस बेकार मशग़ूल-ए-फ़ुग़ाँ थे

जगाया ना-तवाँ-बीनों ने उन को
अबस वो माइल-ए-ख़्वाब-ए-गराँ थे

दबे ज़ेर-ए-ज़मीं ऐ चर्ख़ मह-रू
यहाँ दो दिन के ये सब मेहमाँ थे

अजब मौसम में कटती थी जवानी
चमन था और लुत्फ़-ए-क़िस्सा-ख़्वाँ थे

कहाँ मजनूँ कहाँ 'फरहाद'-ओ-'वामिक़'
हमारी मौत के सब नौहा-ख़्वाँ थे

सवाद-ए-लखनऊ छोड़ा अलम में
ये 'अख़्तर' भी ग़ज़ब के ख़ुश-बयाँ थे