कभी ख़ूँ होती हुए और कभी जलते देखा
दिल को हर बार नया रंग बदलते देखा
जब ये चाहा कि लिखें वस्फ़-ए-सफ़ा-ए-रुख़-ए-यार
सफ़हे पर पा-ए-क़लम हम ने फिसलते देखा
मय में ये बात कहाँ जो तिरे दीदे में है
जिस को देखा कि गिरा फिर न सँभलते देखा
उफ़ रे सोज़-ए-दिल-ए-आशिक़ कि लहद पर उस के
संग-ए-मरमर सिफ़त-ए-बर्फ़ पिघलते देखा
दिल के लेने में ये क़ुदरत उसे अल्लाह न दे
जिस को मिट्टी के खिलौने पे मचलते देखा
दिल का क्या रंग है तुम फिर भी न समझे अफ़्सोस
चश्मा-ए-चशम से ख़ूनाब उबलते देखा
है ये साक़ी की करामत कि नहीं जाम के पाँव
और फिर बज़्म में सब ने उसे चलते देखा
वाइ'ज़-ओ-शैख़ सभी ख़ूब हैं क्या बतलाऊँ
मैं ने मयख़ाने से किस किस को निकलते देखा
पर्दा क्यूँ करता है 'नाज़िम' तिरे घर आए थे
रात को हम ने उन्हें भेस बदलते देखा

ग़ज़ल
कभी ख़ूँ होती हुए और कभी जलते देखा
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम