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कभी ख़ुशबू कभी आवाज़ बन जाना पड़ेगा | शाही शायरी
kabhi KHushbu kabhi aawaz ban jaana paDega

ग़ज़ल

कभी ख़ुशबू कभी आवाज़ बन जाना पड़ेगा

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

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कभी ख़ुशबू कभी आवाज़ बन जाना पड़ेगा
परिंदों को किसी भी शक्ल में आना पड़ेगा

ख़ुद अपने सामने आते हुए हैरान हैं हम
हमें अब इस गली से घूम कर जाना पड़ेगा

उसे ये घर समझने लग गए हैं रफ़्ता रफ़्ता
परिंदों से क़फ़स आमादा करवाना पड़ेगा

उदासी वज़्न रखती है जगह भी घेरती है
हमें कमरे को ख़ाली छोड़ कर जाना पड़ेगा

मैं पिछले बेंच पर सहमा डरा बैठा हुआ हूँ
समझ में क्या नहीं आया ये समझाना पड़ेगा

यहाँ दामन पे नक़्शा बन गया है आँसुओं से
किसी की जुस्तुजू में दूर तक जाना पड़ेगा

तआरुफ़ के लिए चेहरा कहाँ से लाएँगे हम
अगर चेहरा भी हो तो नाम बतलाना पड़ेगा

कहीं संदूक़ ही ताबूत बन जाए न इक दिन
हिफ़ाज़त से रखी चीज़ों को फैलाना पड़ेगा

ख़ुदा-हाफ़िज़ बुलंद आवाज़ में कहना पड़ेगा
फिर उस आवाज़ से आगे निकल जाना पड़ेगा

जहाँ पेशेन-गोई ख़त्म हो जाएगी आख़िर
अभी इस राह में इक और वीराना पड़ेगा

ये जंगल बाग़ है 'आदिल' ये दलदल आब-ए-जू है
कहीं कुछ है जिसे तरतीब में लाना पड़ेगा