कभी ख़ुद को दर्द-शनास करो कभी आओ ना
मुझे इतना तो न उदास करो कभी आओ ना
मिरी उम्र-सराए महके है गुल-ए-हिज्राँ से
कभी आओ आ कर बास करो कभी आओ ना
मुझे चाँद में शक्ल दिखाई दे जो दुहाई दे
कोई चारा-ए-होश-ओ-हवास करो कभी आओ ना
इसी गोशा-ए-याद में बैठा हूँ कई बरसों से
किसी रफ़्त-गुज़श्त का पास करो कभी आओ ना
कहीं आब-ओ-हवा-ए-तिश्ना-लबी मुझे मार न दे
उसे बरखा बन कर रास करो कभी आओ ना
सदा आते जाते मौसम की ये गुलाब-रुतें
कोई देर हैं ये एहसास करो कभी आओ ना
ग़ज़ल
कभी ख़ुद को दर्द-शनास करो कभी आओ ना
आफ़ताब इक़बाल शमीम