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कभी कभी तिरी चाहत पे ये गुमाँ गुज़रा | शाही शायरी
kabhi kabhi teri chahat pe ye guman guzra

ग़ज़ल

कभी कभी तिरी चाहत पे ये गुमाँ गुज़रा

सय्यदा शान-ए-मेराज

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कभी कभी तिरी चाहत पे ये गुमाँ गुज़रा
कि जैसे सर से सितारों का साएबाँ गुज़रा

चराग़ ऐसे जला कर बुझा गया कोई
तमाम दीद का आलम धुआँ धुआँ गुज़रा

जुनून-ए-शौक़ में सज्दों की आबरू भी गई
मुझे ख़बर न हुई कब वो आस्ताँ गुज़रा

वो मेरा वहम-ए-नज़र था कि तेरा अक्स-ए-जमील
वो कौन था कि जो मंज़र के दरमियाँ गुज़रा

बिछड़ के शाम रही तूल-ए-उम्र तक गोया
ठहर गया था जो लम्हा वो फिर कहाँ गुज़रा

मुझे तो चश्म-ए-गुरेज़ाँ भी इल्तिफ़ात लगी
तिरे सितम पे भी ईसार का गुमाँ गुज़रा

छुपा के सो गई मुँह दिन में रहगुज़ार-ए-फ़िराक़
जो शब हुई तो ख़यालों का कारवाँ गुज़रा