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कभी जो उस की तमन्ना ज़रा बिफर जाए | शाही शायरी
kabhi jo uski tamanna zara biphar jae

ग़ज़ल

कभी जो उस की तमन्ना ज़रा बिफर जाए

अरशद कमाल

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कभी जो उस की तमन्ना ज़रा बिफर जाए
नशा फिर उस की अना का उतर उतर जाए

चराग़-ए-शब में तो जलने का हौसला ही नहीं
वो चाहता है कि तोहमत हवा के सर जाए

ज़मीं पे ग़लबा-ए-शैताँ फ़लक बरा-ए-मलक
बशर ग़रीब परेशाँ कि वो किधर जाए

मिरी हयात का सूरज है सू-ए-ग़र्ब मगर
मुहाल है कि मिरा ज़ौक़-ओ-शौक़ मर जाए

चराग़-ए-ज़ेहन जो रौशन नहीं तो कुछ भी नहीं
वो तारे तोड़ के लाए कि चाँद पर जाए