कभी जो उस की तमन्ना ज़रा बिफर जाए
नशा फिर उस की अना का उतर उतर जाए
चराग़-ए-शब में तो जलने का हौसला ही नहीं
वो चाहता है कि तोहमत हवा के सर जाए
ज़मीं पे ग़लबा-ए-शैताँ फ़लक बरा-ए-मलक
बशर ग़रीब परेशाँ कि वो किधर जाए
मिरी हयात का सूरज है सू-ए-ग़र्ब मगर
मुहाल है कि मिरा ज़ौक़-ओ-शौक़ मर जाए
चराग़-ए-ज़ेहन जो रौशन नहीं तो कुछ भी नहीं
वो तारे तोड़ के लाए कि चाँद पर जाए
ग़ज़ल
कभी जो उस की तमन्ना ज़रा बिफर जाए
अरशद कमाल