कभी जो निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-निगार आई है
फ़ज़ा-ए-मुर्दा-ए-दिल में बहार आई है
ज़रूर तेरी गली से गुज़र हुआ होगा
कि आज बाद-ए-सबा बे-क़रार आई है
कोई दिमाग़ तसव्वुर भी जिन का कर न सके
ये जान-ए-ज़ार वो लम्हे गुज़ार आई है
तुझे कुछ उस की ख़बर भी है भूलने वाले
किसी को याद तेरी बार बार आई है
ख़ुदा-गवाह कि उन के फ़िराक़ में 'कौसर'
जो साँस आई है वो सोगवार आई है
ग़ज़ल
कभी जो निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-निगार आई है
कौसर नियाज़ी