कभी जो मैं ने मसर्रत का एहतिमाम किया
बड़े तपाक से ग़म ने मुझे सलाम किया
हज़ार तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का एहतिमाम किया
मगर जहाँ वो मिले दिल ने अपना काम किया
ज़माने वालों के डर से उठा न हाथ मगर
नज़र से उस ने ब-सद मा'ज़रत सलाम किया
कभी हँसे कभी आहें भरीं कभी रोए
ब-क़द्र-ए-मर्तबा हर ग़म का एहतिराम किया
हमारे हिस्से की मय काम आए प्यासों के
ज़े-राह-ए-ख़ैर गुनाह-ए-शिकस्त-ए-जाम किया
तुलू-ए-महर से भी घर की तीरगी न घटी
इक और शब कटी या मैं ने दिन तमाम किया
दुआ ये है न हों गुमराह हम-सफ़र मेरे
'ख़ुमार' मैं ने तो अपना सफ़र तमाम किया
ग़ज़ल
कभी जो मैं ने मसर्रत का एहतिमाम किया
ख़ुमार बाराबंकवी