कभी हरीफ़ कभी हम-नवा हमीं ठहरे
कि दुश्मनों के भी मुश्किल-कुशा हमीं ठहरे
किसी ने राह का पत्थर हमीं को ठहराया
ये और बात कि फिर आईना हमीं ठहरे
जो आज़माया गया शहर के फ़क़ीरों को
तो जाँ-निसार-ए-तारीक़-ए-अना हमीं ठहरे
हमीं ख़ुदा के सिपाही हमीं मुहाजिर भी
थे हक़-शनास तो फिर रहनुमा हमीं ठहरे
दिलों पे क़ौल-ओ-अमल के वो नक़्श छोड़े हैं
कि पेशवाओं के भी पेशवा हमीं ठहरे
'फ़राग़' रन में कभी हम ने मुँह नहीं मोड़ा
मक़ाम-ए-इश्क़ से भी आश्ना हमीं ठहरे
ग़ज़ल
कभी हरीफ़ कभी हम-नवा हमीं ठहरे
फ़राग़ रोहवी