EN اردو
कभी फ़िराक़ कभी लज़्ज़त-ए-विसाल में रख | शाही शायरी
kabhi firaq kabhi lazzat-e-visal mein rakh

ग़ज़ल

कभी फ़िराक़ कभी लज़्ज़त-ए-विसाल में रख

कबीर अतहर

;

कभी फ़िराक़ कभी लज़्ज़त-ए-विसाल में रख
मुझ ए'तिदाल से आरी को ए'तिदाल में रख

नचा रहा है मुझे उँगलियों पे इश्क़ तिरा
तमाम उम्र इसी रक़्स-ए-बे-मिसाल में रख

दुखी हो दिल तो उतरती है शाइ'री मुझ पर
तुझे ग़ज़ल की क़सम है मुझे मलाल में रख

तू चाहता है अगर कार-ए-आफ़ताब करूँ
मिरा उरूज मिरी साअ'त-ए-ज़वाल में रख

तिरे बग़ैर गुज़ारी है ज़िंदगी मैं ने
तू इस सितम की तलाफ़ी भी माह-ओ-साल में रख

तू दिल है और धड़कना तिरी इबादत है
सो ख़ुद को जिस्म से बाहर भी तू धमाल में रख

शिकम से हो के गुज़रते हैं क़ौल-ओ-फ़े'ल मिरे
मुझ ऐसे शख़्स को नान-ओ-नमक के जाल में रख

मिरे बदन को भले इस से आग लग जाए
चराग़-ए-हर्फ़ मगर मेरे बाल बाल में रख

मैं इस अज़ाब के नश्शे में मुब्तला हूँ 'कबीर'
पराई आग उठा कर मिरी सिफ़ाल में रख