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कभी बहार कभी गुल सुबू ठहरी | शाही शायरी
kabhi bahaar kabhi gul subu Thahri

ग़ज़ल

कभी बहार कभी गुल सुबू ठहरी

मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब

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कभी बहार कभी गुल सुबू ठहरी
वो आँख जो किसी जन्नत की आब-जू ठहरी

रुसूम-ए-दर्द निभाएँ कि आप को चाहें
यही तो शर्त-ए-मुलाक़ात दू-बदू ठहरी

हर एक पल में हज़ारों ठहर गईं सदियाँ
नसीम-ए-सुब्ह-ए-तमन्ना मगर न तू ठहरी

लबों की नर्म लपेटों में घुलती घुलती शफ़क़
कहीं लहू कहीं रंगीनी-ए-सुबू ठहरी

दर-ए-फ़िराक़ पे दम-भर को निकहत-ए-सहरी
तिरे ख़िराम की मानिंद हू-ब-हू ठहरी

तुम्हारा लम्स मोअ'त्तर तुम्हारा जिस्म बहार
यही तो बहस गुलाबों के रू-ब-रू ठहरी