कभी बहार कभी गुल सुबू ठहरी
वो आँख जो किसी जन्नत की आब-जू ठहरी
रुसूम-ए-दर्द निभाएँ कि आप को चाहें
यही तो शर्त-ए-मुलाक़ात दू-बदू ठहरी
हर एक पल में हज़ारों ठहर गईं सदियाँ
नसीम-ए-सुब्ह-ए-तमन्ना मगर न तू ठहरी
लबों की नर्म लपेटों में घुलती घुलती शफ़क़
कहीं लहू कहीं रंगीनी-ए-सुबू ठहरी
दर-ए-फ़िराक़ पे दम-भर को निकहत-ए-सहरी
तिरे ख़िराम की मानिंद हू-ब-हू ठहरी
तुम्हारा लम्स मोअ'त्तर तुम्हारा जिस्म बहार
यही तो बहस गुलाबों के रू-ब-रू ठहरी

ग़ज़ल
कभी बहार कभी गुल सुबू ठहरी
मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब