कभी बालों को सुलझाया तो होता
मुझे शाने से उलझाया तो होता
बिगड़ जाता अभी मुँह आइने का
तुम्हारे रू-ब-रू आया तो होता
गुल-ए-यूसुफ़ ज़ुलेख़ाई दिखाता
चमन में वो अज़ीज़ आया तो होता
ज़बान-ए-बोसा-ए-लब दे कर ऐ यार
न दीदे दिल को ललचाया तो होता
मुझे वारफ़्तगी जाने न देती
व-लेकिन तुम ने बुलवाया तो होता
वो कहते ग़ैर से कहते पर ऐ दिल
ज़बाँ पर मुद्दआ' लाया तो होता
रुख़-ए-रनगीं तिरा गर देखता गुल
न उड़ जाता तो पत्ताया तो होता
सहारे पर सहर होती शब-ए-हिज्र
न आते वा'दा फ़रमाया तो होता
न पाया तुम को मैं ने तो गिला क्या
कभी ख़ुद आप को पाया तो होता
मसीहाई न करता गो वो काफ़िर
जनाज़े पर मिरे आया तो होता
न देता ले के दिल वो पर बला से
मिरा दिल हाथ में लाया तो होता
मैं था गुम-कर्दा-ए-इश्क़-ए-कमर यार
कभी अन्क़ा से ढूँढवाया तो होता
मैं करता शुक्र-ए-मुक़द्दम में फ़िदा जाँ
फ़रिश्ता मौत का आया तो होता
न रहता दस्त-ए-वहशत आस्तीं में
जुनूँ ने पाँव फैलाया तो होता
मैं उड़ चलता ब-रंग-ए-सौत-ए-नाक़ूस
'वक़ार' उस बुत ने बुलवाया तो होता
ग़ज़ल
कभी बालों को सुलझाया तो होता
किशन कुमार वक़ार

