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कभी बालों को सुलझाया तो होता | शाही शायरी
kabhi baalon ko suljhaya to hota

ग़ज़ल

कभी बालों को सुलझाया तो होता

किशन कुमार वक़ार

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कभी बालों को सुलझाया तो होता
मुझे शाने से उलझाया तो होता

बिगड़ जाता अभी मुँह आइने का
तुम्हारे रू-ब-रू आया तो होता

गुल-ए-यूसुफ़ ज़ुलेख़ाई दिखाता
चमन में वो अज़ीज़ आया तो होता

ज़बान-ए-बोसा-ए-लब दे कर ऐ यार
न दीदे दिल को ललचाया तो होता

मुझे वारफ़्तगी जाने न देती
व-लेकिन तुम ने बुलवाया तो होता

वो कहते ग़ैर से कहते पर ऐ दिल
ज़बाँ पर मुद्दआ' लाया तो होता

रुख़-ए-रनगीं तिरा गर देखता गुल
न उड़ जाता तो पत्ताया तो होता

सहारे पर सहर होती शब-ए-हिज्र
न आते वा'दा फ़रमाया तो होता

न पाया तुम को मैं ने तो गिला क्या
कभी ख़ुद आप को पाया तो होता

मसीहाई न करता गो वो काफ़िर
जनाज़े पर मिरे आया तो होता

न देता ले के दिल वो पर बला से
मिरा दिल हाथ में लाया तो होता

मैं था गुम-कर्दा-ए-इश्क़-ए-कमर यार
कभी अन्क़ा से ढूँढवाया तो होता

मैं करता शुक्र-ए-मुक़द्दम में फ़िदा जाँ
फ़रिश्ता मौत का आया तो होता

न रहता दस्त-ए-वहशत आस्तीं में
जुनूँ ने पाँव फैलाया तो होता

मैं उड़ चलता ब-रंग-ए-सौत-ए-नाक़ूस
'वक़ार' उस बुत ने बुलवाया तो होता