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कब उस का विसाल चाहिए था | शाही शायरी
kab us ka visal chahiye tha

ग़ज़ल

कब उस का विसाल चाहिए था

जौन एलिया

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कब उस का विसाल चाहिए था
बस एक ख़याल चाहिए था

कब दिल को जवाब से ग़रज़ थी
होंटों को सवाल चाहिए था

शौक़ एक नफ़स था और वफ़ा को
पास-ए-मह-ओ-साल चाहिए था

इक चेहरा-ए-सादा था जो हम को
बे-मिस्ल-ओ-मिसाल चाहिए था

इक कर्ब में ज़ात-ओ-ज़िंदगी हैं
मुमकिन को मुहाल चाहिए था

मैं क्या हूँ बस इक मलाल-ए-माज़ी
इस शख़्स को हाल चाहिए था

हम तुम जो बिछड़ गए हैं हम को
कुछ दिन तो मलाल चाहिए था

वो जिस्म जमाल था सरापा
और मुझ को जमाल चाहिए था

वो शोख़ रमीदा मुझ को अपनी
बाँहों में निढाल चाहिए था

था वो जो कमाल-ए-शौक़-ए-वसलत
ख़्वाहिश को ज़वाल चाहिए था

जो लम्हा-ब-लम्हा मिल रहा है
वो साल-ब-साल चाहिए था