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कब तक करेंगे जब्र दिल-ए-ना-सुबूर पर | शाही शायरी
kab tak karenge jabr dil-e-na-subur par

ग़ज़ल

कब तक करेंगे जब्र दिल-ए-ना-सुबूर पर

बेख़ुद देहलवी

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कब तक करेंगे जब्र दिल-ए-ना-सुबूर पर
मूसा तो जा के बैठ रहे कोह-ए-तूर पर

कोई मुझे बताए कि अब क्या जवाब दूँ
वो मुझ से उज़्र करते हैं मेरे क़ुसूर पर

तालिब हैं जो तिरे उन्हें जन्नत से क्या ग़रज़
पड़ती नहीं है आँख शहीदों की हूर पर

जल्वा दिखाइए हमें बस उज़्र हो चुका
जलने के वास्ते नहीं आए हैं तूर पर

ज़ाहिद भी इस ज़माने के आशिक़ मिज़ाज हैं
जीते हैं उस को देख के मरते हैं हूर पर

घर कर गईं न दिल में मिरी ख़ाकसारियाँ
नाज़ाँ थे आप भी बहुत अपने ग़ुरूर पर

बख़्शे गए न हम से जो दो-चार बादा-ख़्वार
भिनकेंगी मक्खियाँ हैं शराब-ए-तुहूर पर

कुछ शोख़ियों के रंग भी बेताबियों में हैं
किस की नज़र पड़ी है दिल-ए-ना-सुबूर पर

ज़ाहिद की तरह हम को भी जन्नत की है तलाश
अपना भी आ गया है दिल इक रश्क-ए-हूर पर

रक्खे कहीं ये शौक़-ए-रिहाई मुझे न क़ैद
तड़पा अगर यहीं तो रहेंगे ज़रूर पर

'बेख़ुद' न ढूँड कोई वसीला नजात का
ये मुनहसिर है रहमत-ए-रब्ब-ए-ग़फ़ूर पर