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कब तक गर्दिश में रहना है कुछ तो बता अय्याम मुझे | शाही शायरी
kab tak gardish mein rahna hai kuchh to bata ayyam mujhe

ग़ज़ल

कब तक गर्दिश में रहना है कुछ तो बता अय्याम मुझे

भारत भूषण पन्त

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कब तक गर्दिश में रहना है कुछ तो बता अय्याम मुझे
कश्ती को साहिल मिल जाता और थोड़ा आराम मुझे

दश्त नहीं है ये तो मेरा घर है लेकिन जाने क्यूँ
उलझाए रहती है इक वहशत सी सुब्ह-ओ-शाम मुझे

अपनी ज़ात से बाहर आना अब तो मिरी मजबूरी है
वर्ना मेरी ये तन्हाई कर देगी बद-नाम मुझे

मुमकिन है इक दिन मैं इन रिश्तों से मुंकिर हो जाऊँ
और अगर ऐसा होता है मत देना इल्ज़ाम मुझे

मेरे दिल का दर्द सुना तो उस की आँखें भर आईं
इस से बेहतर मिल नहीं सकते अपने मुनासिब दाम मुझे

ज़ेहन को ये आवारा सोचें किस मंज़िल पर ले आईं
कितनी मुश्किल से याद आया आज तिरा भी नाम मुझे

नींद से इसरार न करतीं शायद मेरी आँखें भी
पहले से मालूम जो होता ख़्वाबों का अंजाम मुझे

दश्त-ए-तलब से कह दो मुझ को मेरी मंज़िल बतला दे
मान लिया है अब तो सराबों ने भी तिश्ना-काम मुझे

इक मुद्दत से खोया हुआ था मैं अपनी ही दुनिया में
तुम को देखा तो याद आया तुम से था कुछ काम मुझे