कब से हम लोग इस भँवर में हैं
अपने घर में हैं या सफ़र में हैं
यूँ तो उड़ने को आसमाँ हैं बहुत
हम ही आशोब-ए-बाल-ओ-पर में हैं
ज़िंदगी के तमाम-तर रस्ते
मौत ही के अज़ीम डर में हैं
इतने ख़दशे नहीं हैं रस्तों में
जिस क़दर ख़्वाहिश-ए-सफ़र में हैं
सीप और जौहरी के सब रिश्ते
शे'र और शे'र के हुनर में हैं
साया-ए-राहत-ए-शजर से निकल
कुछ उड़ानें जो बाल-ओ-पर में हैं
अक्स बे-नक़्श हो गए 'अमजद'
लोग फिर आइनों के डर में हैं
ग़ज़ल
कब से हम लोग इस भँवर में हैं
अमजद इस्लाम अमजद